अमेरिका-रूस के लगातार बिगड़ते रिश्तों के भंवर में भारत, कैसे बने सामंजस्य

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन के बीच व्यक्तिगत रिश्तों के बावजूद दो महाशक्तियों के दरम्यान तनाव बढ़ता ही जा रहा है।
राहुल लाल

ऐसे मामले कम ही देखने को मिलते हैं, जब दो देशों के राष्ट्र प्रमुखों के व्यक्तिगत रिश्ते काफी घनिष्ठ हो, उनकी केमिस्ट्री भी बेहतरीन हो, लेकिन दोनों देशों के संबंधों में तनाव काफी तीखा और उच्चतम स्तर पर हो। अमेरिका और रूस के मौजूदा संबंध उपरोक्त संदर्भ का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। डोनाल्ड ट्रंप और ब्लादिमीर पुतिन के व्यक्तिगत संबंधों के घनिष्ठ होने के बावजूद अमेरिका-रूस में तनाव बढ़ा हुआ है। सीरिया संकट ने दोनों के बीच तनाव में अप्रत्याशित वृद्धि कर दी थी, लेकिन हैंबर्ग में जी-20 बैठक में जब पुतिन एवं ट्रंप की मुलाकात हुई तो न केवल यह मुलाकात निर्धारित अवधि से काफी लंबी चली, बल्कि स्वयं अमेरिका की प्रथम लेडी भी मुलाकात में विराम नहीं लगा सकीं।

इस व्यक्तिगत घनिष्ठ मित्रता ने कुछ ही देर में सीरिया में दोनों देशों के चरम पर पहुंचे तनाव को न केवल खत्म किया था, बल्कि सीरिया में युद्धविराम पर भी सहमति बनी थी। मगर अब जब ट्रंप के न चाहने के बावजूद अमेरिकी कांग्रेस ने रूस पर प्रतिबंध वाले विधेयक को पारित कर दिया है, तो रूस अमेरिका से काफी नाराज हो गया है। रूस इतना नाराज हुआ है कि राष्ट्रपति पुतिन द्वारा अमेरिकी दूतावास में काम करने वाले 755 अधिकारियों एवं कर्मचारियों को बाहर निकालने का फरमान जारी कर दिया। अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने इसे दुखद और बेवजह की कार्रवाई बताया है। रूसी विदेश मंत्रालय ने अमेरिकी राजनयिक कर्मियों की संख्या कटौती के लिए एक सितंबर तक का समय दिया है।

साथ ही कहा है कि वह अमेरिकी कांग्रेस की ओर से प्रतिबंधों के नए पैकेज को दी गई मंजूरी की प्रतिक्रिया के तौर पर अब रूस में अपने दूतावास और महावाणिज्य दूतावास के कर्मियों की संख्या को 455 पर सीमित करे। मास्को की ओर से प्रतिक्रिया स्वरूप की गई कार्यवाई पर सफाई देते हुए पुतिन ने रूसिया-1 पर प्रसारित साक्षात्कार में कहा, ‘हमने उम्मीद की थी कि अब स्थिति में थोड़ा बदवाल आएगा, लेकिन अब लगता है कि यह बदलाव जल्दी नहीं होने वाला। मुझे लगता है कि समय आ गया है कि यह दिखाया जाए कि हम बिना जवाब दिए इसे नहीं छोड़ने वाले।’

रूस ने सितंबर तक अमेरिका से अपने दूतावास में छंटनी कर 455 राजनयिक ही सेवा में रखने के लिए कहा है। इसका मूल कारण यह है कि अभी अमेरिका में रूसी दूतावास में 455 ही रूसी राजनयिकों की तैनाती है। 35 रूसी राजनयिकों को ओबामा प्रशासन ने ही बाहर निकाला था। ओबामा प्रशासन के उपरोक्त मामले का जवाब ही एक तरह से रूस ने अब दिया है। सवाल है आखिर ट्रंप एवं पुतिन की व्यक्तिगत मित्रता अमेरिका-रूस मित्रता में क्यों नहीं बदल रही? इसके उत्तर के लिए थोड़ा ओबामा के समय में जाना होगा। ओबामा के समय अमेरिका-रूस संबंध बुरे दौर में थे। तभी ओबामा ने कठोर फैसला लेते हुए 35 रूसी राजनयिकों को निष्कासित कर दिया था। मगर तब ट्रंप के इंतजार में पुतिन ने प्रतीक्षा करना ही बेहतर माना था।

जब ट्रंप के आने के बावजूद अमेरिकी कांग्रेस में रूस पर प्रतिबंध वाला विधेयक पारित हुआ तो रूस भड़क गया और 755 अमेरिकी राजनयिकों के निष्कासित करने का निर्णय ले लिया। अमेरिकी कांग्रेस ने रूस पर प्रतिबंध वाले विधेयक को एकमत प्रस्ताव से मंजूरी दी। इसके दो कारण थे। पहला 2014 में रूस द्वारा क्रीमिया को यूक्रेन से अलग करना तथा दूसरा 2016 के अमेरिकी चुनाव में मास्को द्वारा किया गया कथित हस्तक्षेप। ट्रंप इस विधेयक के बिल्कुल समर्थन में नहीं थे। उनकी अनिच्छा के बावजूद अमेरिकी कांग्रेस से रूस पर प्रतिबंध वाला विधेयक पारित किया।

इसे समझने के लिए अमेरिका की अध्यक्षात्मक व्यवस्था को समझना होगा, जहां कार्यपालिका एवं विधायिका काफी हद तक स्वतंत्र अस्तित्व रखते हैं। मगर अमेरिका में स्वतंत्र विधायिका यानी कांग्रेस के कारण ट्रंप की अनिच्छा के बावजूद रूस पर प्रतिबंध वाला विधेयक पारित हुआ। हालांकि इस विधेयक पर वीटो का अधिकार ट्रंप के पास है, परंतु चुनाव परिणाम के बाद से ही वह रूस के सवाल पर भारी दबाव झेल रहे हैं। लिहाजा अपनी साख बचाने के लिए ट्रंप ने विधेयक पर हस्ताक्षर करने का निर्णय लिया। इसके बाद रूस और भी आगबबूला हो गया है।

जहां एक ओर अमेरिकी राष्ट्रपति और अमेरिकी सहयोगी पश्चिमी देश प्राय: रूस के साथ कई मसलों पर अलग दिखते हैं, तो वहीं ट्रंप पुतिन के करीब नजर आते हैं। मगर ट्रंप के आने के बाद अमेरिका के साथ ग्रांड डिल की जो उम्मीद पुतिन को थी, वह अब तक पूरी नहीं हुई है। रूस ने आशा की थी कि क्रीमिया पर रूसी कब्जे के बाद सामने आए पश्चिमी देशों के प्रतिबंध से भी अमेरिका मुक्ति दिलाएगा। मगर उल्टे अमेरिकी कांग्रेस प्रतिबंध संबंधी विधेयक से रूस का धैर्य टूटा। पिछले दिसंबर से ही अमेरिका में दो रूसी राजनयिक परिसर बंद पड़े हैं। इसे ओबामा ने अपने कार्यकाल में ही बंद किया था। इसका नतीजा होगा कि रूस-अमेरिका की आपसी दूरी मूलत: चीन और मास्को को और निकट लाएगी, जो भारत के लिए बिल्कुल उपयुक्त नहीं है।

रूस और चीन के बीच एक अघोषित गठबंधन की स्थिति बनी हुई है। दक्षिण चीन सागर मामलों में चीनी वर्चस्व पर रूस की चुप्पी और क्रीमिया, सीरिया इत्यादि रूसी मामलों पर चीनी मौनव्रत से इसे आसानी से समझा जा सकता है। भारतीय कूटनीति के लिहाज से वाशिंगटन-मास्को-दिल्ली त्रिकोण ही सर्वश्रेष्ठ है। अमेरिका से दूर होने के बाद रूस शक्ति संतुलन के दृष्टि से स्वाभाविक तौर पर चीन को अपना सहयोगी मानेगा। इस समय रूस के संबंध न केवल अमेरिका बल्कि अन्य पश्चिमी देशों के साथ भी तनावपूर्ण चल रहे हैं। इस स्थिति का सीरिया और उत्तर कोरिया जैसे संकट पर प्रभाव पड़ना तय है।

ट्रंप को दरअसल 45 वर्ष पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर के उस सुझाव पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए कि रूसियों से कहीं ज्यादा खतरनाक चीनी हैं। जब ट्रंप की ताइवान और दक्षिण चीन सागर पर चीन विरोधी और रूस को लेकर मैत्री वाला रुख देखा गया तो, लगा कि अमेरिका हेनरी किसिंजर के सलाह को गंभीरतापूर्वक ले रहा है, परंतु अब ये बातें अतीत की पृष्ठभूमि में चली गई हैं। भारत को बीजिंग- मास्को धुरी को विभिन्न वैश्विक समीकरणों द्वारा तोड़ने का प्रयत्न करना चाहिए अन्यथा बीजिंग-मास्को धुरी का मूर्त रूप भारतीय कूटनीति के समक्ष गंभीर चुनौती लेकर सामने आएगा। लिहाजा भारत को बीजिंग को अलग-थलग करने के लिए अति सक्रिय रहने की आवश्यकता है। भारत के लिए नए समीकरणों का निर्माण बहुत कठिन भी नहीं है।