11 को तय होगा सूबे का सुल्तान, उससे पहले जानें किसने जीता प्रचार अभियान?

भोपाल। मध्यप्रदेश की सबसे बड़ी सियासी बाजी खेली जा चुकी है. सियासत के सूरमा अपने सारे दांव चल चुके हैं, इंतजार है तो बस नतीजों का. दोनों ही पार्टियों के सियासी सूरमा प्रदेश में अपनी-अपनी सरकार बनाने का दावा भी कर रहे हैं. प्रचार अभियान में भी इस बार बीजेपी-कांग्रेस ने पूरी ताकत झोंकी है.

प्रचार अभियान में झोंकी ताकत कितनी कारगर सबाति हुई है इसका फैसला नतीजों के बाद ही हो सकेगा, लेकिन कुछ तथ्यों के आधार पर हम ये आकलन कर सकते हैं कि प्रदेश में प्रचार की बाजी किसके हाथ लगी.

जनआशीर्वाद यात्रा वर्सेज जनजागरण यात्रा
मध्यप्रदेश के चुनावी समर में इस बार दो यात्राओं ने खूब चर्चाएं बटोरीं. एक बीजेपी की जनआशीर्वाद यात्रा तो दूसरी कांग्रेस की जनजागरण यात्रा. जनआशीर्वाद यात्रा की बात करें तो चुनावी साल में सीएम शिवराज ने जनता के मूड को भांपते हुये चुनाव के चार महीने पहले ही जनआशीर्वाद यात्रा शुरु कर दी. जनआशीर्वाद यात्रा के माध्यम से सीएम लोगों के बीच पहुंचकर बीजेपी के पक्ष में माहौल बनाने में जुट गये. जनआर्शीवाद यात्रा के माध्यम से अकेले सीएम शिवराज ने पूरे सूबे का चक्कर लगा लिया.

वहीं इसके उलट कांग्रेस ने प्रदेश में जनजागरण यात्रा निकाली, लेकिन बीजेपी की जनआशीर्वाद यात्रा की अपेक्षा वह कमजोर नजर आई. ऐसा इसलिये कि कांग्रेस के सभी नेता इस यात्रा में शामिल तो हुये, लेकिन किसी एक ने इसकी जिम्मेदारी अपने कंधों पर नहीं ली, जिसके चलते कांग्रेस की यह यात्रा प्रदेश के कुछ स्थानों पर पहुंचने से रह गई. एक बात यह भी थी कि जनजागरण यात्रा की जिम्मेदारी कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष जीतू पटवारी के जिम्मे थी. ऐसे में इस यात्रा में कांग्रेस के उन चेहरों की सहभागिता कम नजर आई जिन्हें एमपी में कांग्रेस का चेहरा माना जाता है. कई राजनीतिक जानकार तो ये कहते भी नजर आए कि शान-ओ-शौकत से रहने के आदी कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे नेता सीएम शिवराज की तरह सड़क पर निकलने की हिम्मत नहीं जुटा सके, जिससे कांग्रेस का प्रचार अभियान कुंद पड़ गया.

सोशल मीडिया पर भी फीका रहा कांग्रेस का कैंपेन
मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव का क्रेज इस बार सोशल मीडिया पर भी जमकर दिखा. यहां स्लोगन वार, वायरल वीडियो के माध्यम से एक-दूसरे पर निशाना साधने जैसी चीजें तो देखी ही गईं, साथ ही स्टार प्रचारकों की रैलियों और सभाओं को लाइव कवरेज के माध्यम से लोगों तक पहुंचाया भी गया. चुनाव के दौरान बीजेपी-कांग्रेस की आईटी सेल ने इस काम को बखूबी अंजाम देने की कोशिश की. लेकिन, कांग्रेस इस मामले में भी बीजेपी से थोड़ी पीछे नजर आई. ऐसा इसलिये कि बीजेपी की अपेक्षा कांग्रेस सोशल मीडिया पर थोड़ी देर से एक्टिव हुई. जहां एक ओर बीजेपी ने अपने नेताओं को ट्विटर और यूट्यूब चैनल पर हमेशा लाइव दिखाया तो वहीं कांग्रेस ने अपने नेताओं की रैलियों, भाषणों को कभी-कभी ही प्रसारित किया.

बीजेपी की आईटी सेल ने जनआशीर्वाद यात्रा को अच्छा कवरेज दिया, जबकि इसके समानांतर चल रही कांग्रेस की जनजागरण यात्रा को उसकी आईटी सेल ने उस तरह से कवर नहीं किया. इस दौरान कांग्रेस के सोशल मीडिया प्रचार अभियान में एक खामी और देखी गई कि उसकी हिमाचल प्रदेश की आईटी सेल तो एमपी चुनाव के लिए हिमाचल के ट्विटर एकाउंट पर प्रचार कर रही थी, लेकिन कांग्रेस के एमपी के ट्विटर एकाउंट से ये प्रचार सामग्री गायब थी.

शिवराज के सामने कांग्रेस का चेहरा न होना
पिछले कई चुनावों की तरह इस चुनाव में भी कांग्रेस सीएम शिवराज के मुकाबले ऐसे एक भी चेहरे को पूरी पार्टी में मान्यता नहीं दिलवा सकी जो आगे बढ़कर कार्यकर्ताओं का नेतृत्व कर सके. भले ही उसने एकजुटता के साथ चुनाव लड़ा हो, लेकिन मतदाता इस पशोपेश में दिखा कि कांग्रेस की तरफ से मुख्यमंत्री पद का प्रबल दावेदार कौन होगा. इस वजह से भी कांग्रेस का प्रचार अभियान प्रभावित रहा. सूबे में कांग्रेस के पास इतने सारे बड़े चेहरे होने के बाद भी वह किसी नेता का नाम आगे नहीं ला सकी. नेताओं को संगठित रखने के लिए कांग्रेस ने सभी को कोई न कोई पद दिया. प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की जिम्मेदारी कमलनाथ के कंधों पर आई तो पिछली बार की तरह इस बार भी सिंधिया प्रचार समिति के अध्यक्ष बने. वहीं दिग्गी राजा कांग्रेस में समन्वय करते दिखे. जबकि चुनाव प्रचार की रणनीति सुरेश पचौरी के जिम्मे थी.

राजनीतिक जानकार मानते हैं कि भले ही इस बार इन नेताओं ने अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई हो, लेकिन शिवराज के सामने चेहरा न होने से कांग्रेस का प्रचार अभियान फीका नजर आया. इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सीएम शिवराज ने अकेले 150 से ज्यादा चुनावी रैलियां और सभाओं को संबोधित किया, जबकि कमलनाथ और सिंधिया मिलकर भी इतनी रैलियां नहीं कर पाये.