अखिलेश बोले- UP में चुनावी अंकगणित सही करने के लिए कांग्रेस को रखा गठबंधन से बाहर

भारतीय राजनीति में एक आम धारणा यह है कि जो उत्तर प्रदेश जीतता है वो देश जीतता है. आगामी लोकसभा चुनावों के लिए 24 साल बाद अपने तमाम मतभेद भुलाकर जब समाजवादी पार्टी (एसपी) और बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) ने गठबंधन का ऐलान किया, तो यह सवाल पूछा जाने लगा कि इस गठबंधन में कांग्रेस क्यों नहीं है? इस रहस्य से पर्दा उठाते हुए यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा है कि चुनावी अंकगणित सही करने के लिए कांग्रेस को गठबंधन से बाहर रखा गया. एसपी अध्यक्ष अखिलेश यादव के इशारों में दिए गए इस जवाब को यूपी की सियासी गणित के तराजू में तौल कर देखें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा?

साल 2014 के आम चुनाव में 30 साल बाद यदि किसी दल को लोकसभा में बहुमत मिला तो इसका कारण यह था भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने यूपी की कुल 80 सीटों में से 71 सीटों पर जीत का परचम लहराया और एनडीए को 73 सीटें मिलीं. इन चुनावों में एसपी, बीएसपी और कांग्रेस अकेले लड़ी थीं और बहुकोणीय मुकाबले का फायदा बीजेपी को मिला. लेकिन आज के सियासी हालात जुदा हैं, कभी एक-दूसरे के धुर विरोधी रहे एसपी-बीएसपी ने बीजेपी के रथ को रोकने के लिए हाथ मिला लिया है. इस समझौते के मुताबिक 38 सीटों पर बीएसपी और 37 सीटों पर एसपी लड़ेगी. जबकि अजीत सिंह के राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) के लिए 3 सीटें छोड़ी गई हैं. तो वहीं कांग्रेस के लिए रायबरेली और अमेठी की सीट छोड़ी गई है.

2017 विधानसभा चुनाव में ठीक नहीं था अंकगणित

अखिलेश यादव ने एक समाचार एजेंसी को दिए इंटरव्यू में कहा कि अपने कार्यकाल में तमाम विकास कार्यों के बावजूद हम विधानसभा चुनाव हार गए, क्योंकि चुनावी अंकगणित ठीक नहीं था. इसलिए हमने बीएसपी और आरएलडी को साथ लेकर और कांग्रेस के लिए 2 सीट छोड़कर अंकगणित ठीक कर लिया. बता दें कि यूपी विधानसभा चुनाव में एसपी ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था. इस गठबंधन में दोनों दलों का प्रदर्शन बेहद खराब रहा. इससे पहले बीएसपी भी कांग्रेस के साथ 1996 में गठबंधन कर चुनाव लड़ चुकी है. इन चुनावों में बीएसपी का वोट तो कांग्रेस को मिला लेकिन कांग्रेस का वोट बीएसपी को ट्रांसफर नहीं हुआ.

दरअसल यूपी में कमजोर हो चुकी कांग्रेस का प्रभाव कुछ शहरी हिस्सों और अगड़ी जाति तक सीमित हो चुका है. यह वो आबादी है जो एसपी-बीएसपी के खिलाफ वोट करती है. लिहाजा इन दोनों दलों से कांग्रेस के गठबंधन की सूरत में यह वोट बीजेपी (जहां कांग्रेस का उम्मीदवार नहीं है) को चला जाता है. जबकि एसपी-बीएसपी-आरएलडी हाल में हुए कैराना, फूलपुर और गोरखपुर उपचुनाव में गठबंधन करके देख चुके हैं कि इनके वोट एक-दूसरे के उम्मीदवारों को मिले. ऐसे में कांग्रेस की भूमिका वोट कटवा से ज्यादा नहीं रह जाती, जो अतत: इन दोनों दलों को ही फायदा पहुंचाएगी.

बीजेपी को नहीं मिलेगा धार्मिक ध्रुवीकरण का मौका

उत्तर प्रदेश के सभी विपक्षी दलों के एक साथ आ जाने से बीजेपी द्वारा यह प्रचार करना आसान हो जाता कि सभी दल उसे हराने के लिए इकट्ठा हुए हैं. बीजेपी पहले से ही एसपी और कांग्रेस को मुस्लिमों की पार्टी बताती रही है. ऐसे में बीजेपी द्वारा वोटों के ध्रुवीकरण का प्लान कामयाब हो जाता, जिसका फायदा बीजेपी को ही मिलता. लेकिन अब यह साफ है कि कांग्रेस जहां भी लड़ेगी बीजेपी का ही वोट काटेगी, न कि गठबंधन का.

कांग्रेस के पास नहीं है कोई जातिगत वोटबैंक

कांग्रेस को इस गठबंधन से अलग रखने का एक कारण यह भी है कि उसके पास किसी विशेष जाति का वोटबैंक नहीं है. जबकि एसपी के पास यादव-मुस्लिम, बीएसपी के पास दलित-मुस्लिम और अजीत सिंह का पश्चिम उत्तर प्रदेश के जाट वोट पर प्रभाव है. कांग्रेस की समर्थक ज्यादातर अगड़ी जाति और शहरी मध्यम वर्ग है, जिन्हें फ्लोटिंग वोट कहा जा सकता है. यह वोट कांग्रेस के विकल्प के तौर पर बीजेपी को तो जा सकता है, लेकिन एसपी-बीएसपी को नहीं जाता.

कांग्रेस को भी अधिक सीटों पर लड़ने का मिलेगा मौका

अगर कांग्रेस सपा-बसपा-आरएलडी के मिनी गठबंधन में शामिल होती तो प्रदेश में उसकी ताकत देखते हुए उतनी सीटें नहीं मिलती जितनी वो लड़ना चाहती. गठबंधन ने रायबरेली और अमेठी की 2 सीट देकर यह साबित कर दिया. लेकिन अब कांग्रेस अधिक सीटों पर चुनाव लड़ सकती है. यह परिस्थिति कांग्रेस और गठबंधन दोनों के लिए मुफीद है. क्योंकि गठबंधन चाहेगा कि कांग्रेस ज्यादा से ज्यादा सीटों पर बीजेपी का वोट काटे. जबकि हिंदी पट्टी के 3 राज्यों में मिली जीत से कांग्रेस उत्साहित है और हिंदी पट्टी के सबसे बड़े राज्य यूपी में अपनी वापसी को बेताब भी.

ऐसे में जिस राज्य में कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व चुनाव लड़ता रहा है, वहीं पार्टी खुद को कमतर दिखाना नहीं चाहेगी. लिहाजा यह अंकगणित गठबंधन और कांग्रेस दोनों के लिए संतोषजनक है.