Modi@3: मोदी सरकार के तीन साल बाद आज कहां खड़ा है विपक्ष
मोदी सरकार को तीन साल बीत चुके हैं. कांग्रेस 2014 के आम चुनावों के बाद लगातार कई चुनाव हार चुकी है. आवाम मोदी सरकार से काफी हद तक खुश है. विपक्ष को चाहकर भी विरोध का कोई मुद्दा नहीं मिल पा रहा है और न ही वह इसके लिए कोशिश करती नजर आ रही है. इसके उलट मोदी जितने मजबूत होते जा रहे हैं उनका विपक्ष उतना ही कमजोर होता जा रहा है.
सपा दो फाड़
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों से ठीक पहले समाजवादी पार्टी में ऐसा दंगल मचा कि पार्टी दो फाड़ हो गई. तमाम बैठकों के बाद अखिलेश और शिवपाल के बीच सुलह तो हुई लेकिन बीच-बीच में दोनों एक दूसरे पर कटाक्ष करने से नहीं चूकते. चुनावों में मिली करारी हार के बाद मुलायम सिंह यादव ने एक बार फिर चुप्पी साध ली है. पार्टी में दो फाड़ साफ नजर आता है लेकिन ताकतवर खेमा अखिलेश यादव का ही है.
यूपी राजनीति के लिहाज से देश का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है और यूपी की सबसे बड़ी पार्टी होने की बात समाजवादी पार्टी कहती रही है. पारिवारिक दंगल में फंसी समाजवादी पार्टी काफी कमजोर नजर आ रही है. यही वजह है कि योगी आदित्यनाथ और उनकी सरकार पर विपक्ष का कोई दबाव नजर नहीं आ रहा है. और इसका साफ असर केन्द्र की मोदी सरकार पर भी नजर आ रहा है.
लालू-नीतीश में दरार
यूपी के बाद सबसे बड़े राजनीतिक उठापठक वाले राज्यों में बारी आती है बिहार की. 2014 में बीजेपी के आए ‘अच्छे दिन’ पर हार का बट्टा लगाने वाला राज्य यही है. हालांकि इस हार के लिए धुरविरोधी रही आरजेडी और जेडीयू ने ऐतिहासिक गठबंधन किया और महत्वाकांक्षी लालू प्रसाद यादव ने सत्ता की चाबी नीतीश कुमार के हाथों में सौंप दी. लेकिन नीतीश कुमार के नोटबंदी का समर्थन करने के बाद मीडिया में आए दिन ‘बिहार का गठबंधन टूटने के कगार पर’ की खबरें आती रहीं.
कांग्रेस और ज्यादा पस्त
ऐसा लगता है कि देश में इन दिनों ‘अच्छे दिन’ बीजेपी के और ‘बुरे दिन’ कांग्रेस के ही चल रहे हैं. देश में सबसे बुरा हाल अगर किसी राजनीतिक पार्टी का है तो वह देश की केन्द्रीय सत्ता पर सबसे ज्यादा दिन काबिज रहने वाली कांग्रेस का है. पार्टी का भविष्य किन हाथों में जाएगा समझ ही नहीं रहा. पार्टी का तमाम मुद्दों पर स्टैंड क्या है जनता को पता ही नहीं. सदन में विरोधी दल की भूमिका भी नदारद है. सोनिया गांधी लगातार बीमार चल रही हैं और राहुल गांधी कुछ ज्यादा एक्टिव नजर नहीं आते. चुनावों के दौर में वे कुछ सक्रिय तो होते हैं लेकिन हार उनकी उम्मीद बुझा सी देती है.